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प्रगति व प्रकृति औऱ प्रदूषण

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 जे   पी द्विवेदी उप सम्पादक
प्रर्यावरण और मानव जीवन का बड़ा ही गहरा सम्बंध रहा है। वास्तव में दैनिक रहन-सहन एवं श्वास-प्रश्वास की प्रक्रिया के फलस्वरूप दोनों एक दूसरे से हर पल, हर क्षण जुड़े रहते हैं। मानव जब असभ्य था तब वह प्रकृति के अनुसार जैविक क्रियाएं करता था और प्राकृतिक सन्तुलन बना रहता था। किन्तु सभ्यता के विकास ने मानव को विलासी बना दिया है। विकास के नाम पर मानव की दानव प्रकृति ने प्राकृतिक सम्पदा को रौंद डाला है।
किसी भी राष्ट्र की संपत्ति वहाँ की भूमि, जल और वन पर ही आधारित होती हैं। इस दृष्टि से भारत में हिमालय का विशेष महत्व है। यहाँ के घने जंगलों में अनेक प्रजातियों के जीव-जन्तु और वनस्पतियाँ पाई जाती है। गंगा और यमुना जैसी देश की प्रमुख नदियों का उद्गम और जल ग्रहण क्षेत्र हिमालय ही है। हिमालय भारत के गौरव, संस्कृति, सभ्यता और सृष्टि की प्राचीनता का प्रतीक बन कर सदियों से हमारे देश में प्रतिष्ठित ही नहीं रहा है, बल्कि भौतिक रूप से देश की जलवायु को नियंत्रित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आ रहा है।

वायु मण्डल पृथ्वी की रक्षा करने वाला आवरण है। यह सूर्य के गहन प्रकाश और ताप को नरम कर देता है। पृथ्वी से 50 किलोमीटर की दूरी तक इसमें 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.3 प्रतिशत कार्बनडाई आक्साइड तथा शेष अक्रिय गैस पाई जाती है। ‘कार्बन व नाइट्रोजन चक्रों द्वारा वायुमण्डल में उपयुक्त गैसों का संतुलन बना रहता है। हम जानते हैं, ऑक्सीजन जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा पौधों के प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा स्थिर रखी जाती है। वायुमण्डल में पायी जाने वाली गैसें एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में होती हैं। जब वायु के अवयवों में अवांछित तत्व प्रवेश कर जाते हैं, तो उसका मौलिक संतुलन बिंगड़ जाता है। वायु, के इस प्रकार दूषित होने की प्रक्रिया “वायु प्रदूषण” कहलाती है।

वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार किसी भी स्वचालित मशीनों से एक गैलन पेट्रोल के दहन से 3 पौण्ड कार्बन मोनो ऑक्साइड तथा 14 पौण्ड नाईट्रोजन ऑक्साइड गैस निकलती है, जो 5 लाख से 20 लाख घन फीट हवा को प्रदूषित कर सकती है। जिससे कई प्रकार के दुष्प्रभावों का जन्म होता है, जैसे दम घुटना, सिर दर्द खासी निमोनियां तपेदिक रक्त चाप, हृदय रोग तथा कैंसर आदि रोगों के अलावा आँखों व श्वास नली में भी जलन होती है।

वायुमण्डल में जो कार्बन डाई ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड व नाइट्रिक ऑक्साइड अनावश्यक मात्रा में इकट्ठे हो रहे हैं, उससे वर्षा के समय में गैसें पानी से अभिक्रिया कर कार्बोनिक अम्ल, सल्फ़्यूरिक अम्ल तथा नाईट्रिक अम्ल में परिवर्तित होकर वर्षा के जल को तेजाब में बदल देती हैं, जिससे तेजाबी वर्षा होती है, जो मानव जीवन के लिये अत्यधिक हानिकारक होती है। तेजाबी वर्षा झीलों के पानी, फसलों, पेड़-पौधों व मिट्टी को गहरा नुकसान पहुँचाती है, जिससे मछलियों की प्रजनन व मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

वायुमण्डल में गैसों के असंतुलन के परिणामस्वरूप सूर्य किरणों के पृथ्वी पर एकत्रीकरण से पृथ्वी निरन्तर गरम होती जा रही है। इसे ग्रीनहाउस प्रभाव कहते हैं। वायुमण्डल में जब कार्बन डाईऑक्साइड गैस की मात्रा अधिक हो जाती है, तो यह पृथ्वी के चारों ओर आच्छादित होकर संरक्षित घेरा बना लेती हैं। जिससे सूर्य की रोशनी पृथ्वी पर तो आ जाती हैं किन्तु पृथ्वी से किरणों को वापस अन्तरिक्ष में जाने से रोकती हैं। इसके कारण वायुमण्डल का तापमान बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों के एक अनुमान के अनुसार विगत 50 वर्षों में पृथ्वी का औसत तापक्रम 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। अब यदि 3.6 डिग्री सेल्सियस तापक्रम और बढ़ता है तो आर्कटिक एवं अंटार्कटिक के विशाल हिमखण्ड पिघल जायेगें। परिणाम स्वरूप समुद्र के जल स्तर में 10 इंच से 5 फुट तक की वृद्धि हो जायेगी। ऐसी स्थिति में बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, पणजी, विशाखापट्टनम, कोचीन व त्रिवन्द्रम जैसे तटीय नगरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। विश्व का अस्तित्व ही इस प्राकृतिक असंतुलन के कारण खतरे में पड़ गया है।

प्रदूषण एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या बन चुका है। प्रदूषण के खतरों से रक्षा करवाना किसी एक देश के लिये सम्भव नहीं है। इस कार्य के लिये सभी राष्ट्रों की भागीदारी की आवश्यकता है। राष्ट्र धर्म, जाति और भाषा के नाम पर प्रदूषण की रोकथाम अलग-अलग नहीं की जा सकती है। आज प्रत्येक मानव को इस बात का एहसास होना चाहिए कि हम सब प्राकृतिक रूप से एक अविभाज्य पृथ्वी के नागरिक है जो अपने नागरिकों के साथ किसी भी स्तर पर भेदभाव नहीं करती है। आज “वसुधैव कुटुम्बकम” जैसे अमृत वचनों को मूर्त स्वरूप देने की आवश्यकता है।

पर्यावरण संरक्षण का अर्थ विकास ही समझा जाना चाहिए और इस कार्य में ग्रामीण तथा शहरी सभी लोगों को सक्रिय होकर हिस्सा लेना चाहिए। भारतीय संस्कृति में वनों के महत्व को समझते हुए उनके संरक्षण को उचित मान्यता दी गई है। हमारे यहाँ हरे-भरे वृक्षों को काटना पाप माना गया है। आज इसी भावना को लोगों में फिर से जगाने की आवश्यकता है। इसके अलावा प्रदूषण को निम्नलिखित उपायों द्वारा काफी सीमा तक नियत्रिंत किया जा सकता है।

1. जनसाधारण को प्रदूषण से उत्पन्न खतरों से अवगत कराया जाय जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर प्रदूषण कम से कम करने का हर सम्भव प्रयास ईमानदारी से करें।

2. विस्तृत पैमाने पर उचित वृक्षारोपण कर प्रदूषण को कम किया जा सकता है। इसके लिये सरकार को चाहिए कि वह जगह-जगह कुछ ऐसी भूमि की व्यवस्था करे जहाँ पर व्यक्ति अपने नाम से, यादगार व स्वास्थ्य के लिये कम से कम एक वृक्ष लगा सके।

3. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण कर प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है।

4. प्रदूषण से बचने के लिये यह आवश्यक है कि किसी भी परियोजना को तैयार किये जाने के समय ही पर्यावरण से सम्बंधित मसलों पर विचार कर, उन्हें परियोजना में शामिल कर लिया जाए।

5. प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के लिये, प्राकृतिक संसाधनों, कूड़े-कचरे व अवांछित पदार्थों का नियोजित ढंग से प्रबंध कर तथा विषैले रसायनों का प्रचलन रोक कर किया जा सकता है।

प्रगति एवं प्रकृति एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी न होकर पूरक है। परन्तु प्रगति के नाम पर प्रकृति की अवहेलना नहीं की जा सकती है। अतः दोनों में सामंजस्य आवश्यक है। वन विनाश के दुष्परिणामों पर स्काटलैंण्ड के विद्वान लेखक रोबर्ट चेम्बर्स लिखते हैं कि “वन नष्ट होते हैं तो जल नष्ट होता है, मत्स्य और शिकार नष्ट होते हैं, उर्वरता विदा ले जाती है और तब ये पुराने प्रेत एक के पीछे एक प्रकट होने लगते हैं-बाढ़, सूखा, आग, अकाल और महामारी”।
जे पी द्विवेदी समाज सेवक
लखनऊ

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