इनायत के इन्तजार में नवाब आसिफुद्दौला का खण्डहर महल नवाब के घोड़े के खुर से मरा मूस तो बन गया मूसाबाग
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लखनऊ।(मोहम्मद शानू) नवाबों के शहर लखनऊ के सरफराजगंज के ठीक पीछे बसा मूसा बाग जहां नवाब आसिफुद्दौला का महल खण्डहर हाल में नयी पीढ़ी से उम्मीदें इस बात की जता रहा कि काश इस महल को आने वाली नस्लों को भी देखने का मौका मिले। मगर इस खण्डहर महल के जिम्मेदार लोग न जाने क्यों निगाहें फेरे हुए हैं। सोमवार को आग उर्दू व हिंदी इंकिलाबी नजर के संवाददाता और छायाकार ने मूसा बाग का जायजा लिया तो मानों खण्डहर महल इस बात की गवाही दे रहीं हो कि नये जमाने के लोगों को पुरानी विरासत और इतिहास से कोई लगाव नहीं है। हालांकि कुछ तस्वीरों को महज इस लिए कैद किया कि इसे जिम्मेदार लोगों तक अखबार के माध्यम से पहुंचा दिया जाये तो शायद यहां की तस्वीर बदल जाये।
बताते चले कि यहां भारतीय और यूरोपीय शैली की एक अप्रतिम इमारत थी, जो आज एक खण्डहर के रूप में बदल चुकी है। मगर आज भी वो विशल खण्डहर अपनी खूबसूरती की कहानी खामोशी में सुना रहा है। जानकारी करने के बाद पता चला कि मूसाबाग का यह नक्शा अंग्रेज अधिकारी मोर्सियो मार्टिन ने बनाया था, मूसाबाग को लेकर बहुत सी बाते मशहूर हैं। कई बुजूर्गों से बात करने पर पता चला कि एक बार नवाब आसिफुद्दौला सैर के लिए गोमती के किनारे-किनारे चलते हुए मूसाबाग पहुंच गये उन्हें वो जगह खूबसूरत और दिल को लुभाने वाली लगी कि, उन्होंने अपने गुलामों से वही खेमा लगा कर राग रंग की महफिल सजाने का आदेंश दिया, सब लोग ख़ुश हो गये, पकवान बनाने की तैयारियां शुरु हो गयीं, नवाब घोड़े पर सवार ठण्डी हवा और चांदनी रात का आनंन्द उठा रहे थे कि एक मोटा चूहा, जिसे खास शब्द में मूस कहा जाता हैं ।
नवाब के घोड़े के खुरों के नीचे आ कर मर गया। नवाब बड़े भावुक इंन्सान थे, उनका मन मूस की क्षतविक्षत लाश को देख कर भर आया, वो उदास हो गये और सबको वापस महल चलने का आदेश दे डाला। ये देखकर चाटुकारों और पकवानों के भूखे गुलामों को सदमा लगा। वो नवाब को खुश करने की बात सोचने लगें फिर एक बंन्दा नवाब साहब के पास आया और उदास स्वर में बोला
हूजूर आप फिक्रमंद ना हों, ये चूहा तो खुश नसीब था जो आप जैसी महान हस्ती के घोड़े के नीचे आकर मरा आप नेकदिल बादशाह हैं, अगर आप चाहे तो इस चूहे का कफन दफन करवा कर इसकों इज्जत बख्शे। बादशाह की उदासी इससे कम हो गयी। उन्होंने वहीं चूहे की कब्र बनवा दी और फिर एक शानदार बाग भी लगवाया तब से उस मूस अर्थात चूहे की वजह से उस स्थान का नाम मूसाबाग हो गया।
मूसाबाग का निर्माण नवाब आसिफुद्दौला ने सन1775 में करवाया था। ये शानदार इमारत सन1857 की गदर में, अंग्रेजों ने गोला बारी से बरबाद कर दी। पर आज भी लोग वहां दर्शन के लिए जाते हैं, जानकारी के बाद यह भी पता चला कि कुछ वक्त तक तो ये इमारत उपेक्षित पड़ रही, पर इधर कुछ सालों में पुरातत्व विभाग नें इस पर थोड़ी बहुत नजर-ए- एनायत की है। मलबों को साफ कराया गया है, लोग यहां शूटिंग आदि के लिए भी आने लगे हैं। ये एक सराहनीय कदम जरूर हैं।
मगर शहर में होने के बावजूद यह इमारत खुद को बेबसी की नजरों से देख रही है। यहां लोगों ने बताया कि कई बार अधिकारी आये कई तरह की बाते सुनने में आयीें कि यहां खूबसूरत नजारा होगा। ऐतिहासिक इमारत को बुलंद दर्जा मिलेगा। मगर फिलहाल खण्डहर की साफ-सफाई ही की गयी है। लोगों ने यह भी कहा कि अक्सर यहां लोग रोमांस की नजर से सन्नाटे का फायदा उठाने के लिए आते हैं। यहां युवा लड़के व लड़कियों को देखा जाता है। यहां एक अंग्रेज कैप्टन वेल्स की पक्की कब्र भी हैं जहां लोग सिगरेट का प्रसाद भी चढ़ाते हैं, और एक मजार सैय्यद इमाम अलीशाह बाबा की भी है। जहां हर बृहस्पतिवार को श्रद्धालु भी आते हैं। अब मूस की कब्र कौन सी है, इस बात की पुष्टि नही हो पायी हैं।
मूसा बाग में सैय्यद इमाम अली शाह की दरगाह भी है। वैसे ये मजार कब से है इसका अंदाजा किसी को नहीं है लेकिन जानकारों के अनुसार अवध के नबाब आसिफुद्दौला ने वर्ष 1775 में फैजाबाद से लखनऊ आकर एकांत क्षणों को रूमानी बनाने के लिए जब मूसाबाग का निर्माण कराया था तब उसने रास्ते में पड़ रही इस मजार के लिए कुछ स्थान छोड़ दिया था। अब यह मजार हिंदू-मुस्लिम एकता की बड़ी है। हजरत सैयद इमाम अली शाह बाबा की इ मजार की जिम्मेदारी नरेश सोनकर और भगवानदास बाबा करते हैं। इससे पूर्व कामिनी कश्यप ने इस मजार की देखरेख का काम करीब 40 सालों तक किया। भगवानदास बाबा ने बाताया कि यहां बसंत पंचमी को मेला लगता है। इसके अलावा सावन का झूला सावन की नौचंदी को मनाया जाता है। हिंदू-मुस्लिम भारी तादात में यह बाबा की दरगाह पर मुराद लेकर आते हैं।
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